बांग्लादेश की निर्वासित लेखिका तसलीमा नसरीन को धार्मिक कट्टरपंथ और पुरुष प्रभुत्व का विरोध करने की कीमत अपनी किताबों पर प्रतिबंध, मौत के फतवों और देश निकाले के रूप में वर्षों से चुकानी पड़ रही है। निर्वासन का दंश कितना गहरा होता है, इसे तसलीमा की इस कविता में देखा जा सकता हैः
सभी के एक-दो आत्मीय
घर-गृहस्थी
घर वापसी आदि
कुछ न कुछ होते ही हैं।
सिर्फ मेरा ही नहीं है कुछ
नहीं है कोई
केवल मेरे ही सूखकर दरार पड़े दिल में
पड़ी रहती है बेशर्म खाली कलश
सभी में जल रहता है, दल रहता है, फूल-फल रहता है।
मेरा ही कुछ नहीं है सम्पूर्ण जीवन में
निस्संग प्रवास के अलावा।
तसलीमा की आत्मकथा के पाँचवें खंड का शीर्षक है-'आमी भालो नेई, तुमी भालो थेको प्रिय देश'। इसी शीर्षक से तसलीमा की एक कविता भी है जिसका हिंदी रूपांतर होगा-'देश तुम कैसे हो? इसमें वे कहती हैं-
कैसे हो देश तुम?
तुम, देश हो कैसे
तुम हो कैसे, देश?
मेरा दिल तड़पता है तुम्हारे लिए
तुम्हारा नहीं?
मेरा जीवन छीज रहा है तुम्हें याद करते हुए
और तुम्हारा?
खोई रहती हूँ सपनों में
तुम?
अपने घाव, दुःख
अपने आँसू
छिपाए रखती हूँ गोपन में
गोपन में छिपाए रखती हूँ उड़ते बाल, फूल, गहरी सांस
मैं कुशल नहीं हूँ तुम सकुशल रहना प्रिय देश।'
निर्वासन-जीवन पर तसलीमा ने कई कविताएँ लिखी हैं जो 'निर्वासित नारीर कविता' में संकलित हैं। हिंदी में 'मुझे मुक्ति दो' शीर्षक में वह अनूदित है।
'मुझे मुक्ति दो' के अलावा 'यह दुःख यह जीवन', 'तसलीमा नसरीन की कविताएँ' और 'कुछ पल साथ रहो' संग्रह की कविताएँ मनुष्य को और सुंदर व बेहतर बनाने की कामना रखती हैं। तसलीमा की तड़प यह है कि स्त्री को मनुष्य माना ही नहीं जाता। 'मुझे मुक्ति दो' (निर्वासित नारीर कविता) में 'नारी' शीर्षक कविता वे कहती हैं-
नारी प्रताड़ित है पूरब-पश्चिम में, उत्तर दक्षिण में
नारी प्रताड़ित है घर में, घर के बाहर
केश काला हो या सुनहरा, वह प्रताड़ित है
आँखें नीली हों या बादामी, वह प्रताड़ित है
वह धर्म में प्रताड़ित है, अधर्म में भी
वह आस्थावान हो या अनास्थावान, प्रताड़ित है
वह सुंदर हो या असुंदर, प्रताड़ित है
वह सत् हो या असत्, प्रताड़ित है
वह अपंग हो या सर्वांग
अंधी हो या बहरी, प्रताड़ित है
स्वस्थ हो या अस्वस्थ, प्रताड़ित है
अशिक्षित हो या शिक्षित, प्रताड़ित है।
वह धनी हो या दरिद्र, प्रताड़ित है
शिशु हो, बालिका हो, युवती हो या वृद्धा, प्रताड़ित है
वह कपड़े में हो या नग्न, प्रताड़ित है
वह सुवक्ता हो या गूंगी, प्रताड़ित है
साहसी हो या भीरू, प्रताड़ित है।'
आज समाज में हर स्तर पर हर क्षण स्त्री प्रताड़ित होती है, इस तथ्य को नकारा जा सकता है? इसी तरह 'पण्य' शीर्षक कविता में तसलीमा कहती हैं-
बिल बोर्ड में किसकी तस्वीर टँगी है?
नारी की
जोर से किसका शरीर चल रहा है?
नारी का
ऊपर से नीचे कौन ढँकी हुई है?
नारी
केश के नाना ढंग किसके हैं?
नारी के
किसके मुँह पर अत्यधिक रंग हैं?
नारी के
कान में गहना, नाक में गहना
किसके हाथ-पाँव में है गहना?
नारी के
किसकी पीठ पर मार के निशान?
नारी के
आँख में पानी?
नारी के
आधी रात में किसका खून होता है?
नारी का
बिल बोर्ड में कौन हँस रही है?
नारी
कहना न होगा कि आज नारी की जो दुर्दशा है, उसका मुकम्मल चित्र इस कविता में हम पा जाते हैं। आज स्त्री की दुर्दशा सर्वत्र विद्यमान है। उसके शोषक हर जगह हैं। 'डर' शीर्षक कविता में तभी तो तसलीमा कहती हैं-
अब स्वप्न में नहीं, जागते हुए देखती हूँ चंद्रबोड़ा साँप।' स्त्री को अपने पूरे स्वाभिमान के साथ चलने के लिए रोज चट्टान को हटाना पड़ता है-'औरत का जन्म और प्रतिभा का पाप लिए हर रोज नियत चट्टान हटाकर चलती हूँ।' स्त्री पर क्या-क्या अत्याचार नहीं ढाए जाते। पुरुष चाहे तो क्या नहीं कर सकता-
जैसे चाहे मुंह पर थूक सके
गाल पर थप्पड़ जड़ सके
जी में आए तो पाँवों में डाल दे बेड़ियाँ
चाहे तो काट ले हाथ की उंगलियाँ।'
तसलीमा की पीड़ा यह है कि स्त्री सदियों से न सिर्फ चुपचाप अत्याचार सहती आ रही है, थोड़ा-कुछ पाकर ही वह मोम की तरह पिघल जाती है-
वे आलता की एक शीशी पाकर
मारे खुशी के तीन दिन बिना सोए बिता देती हैं।
एक नथनी पाकर वे सत्तर दिनों तक
पाँव चाटती रहती हैं।
एक साड़ी मिल जाने पर पूरे साढ़े तीन महीने तक
स्त्री अमूमन पुरुष का थोड़ा-सा प्यार पाकर ही अपने सारे अभावों को भूल जाती है-
प्यार पाकर सिर्फ
बैंगन का भुर्ता
दो ठो मिर्च भात
फुटपाथ पर रात
तब भी एक तृप्ति मिलती है जीने की
स्त्री चूँकि प्रेम के लिए स्व का समर्पण कर देती है, इसीलिए उसमें प्रतिरोध की ताकत नहीं आई है-
घर का मरियल कुत्ता भी जरूरत पड़ने पर भौंक उठता है
पर सस्ती लड़की के मुँह पर एक क्लिप लगा रहता है
सोने का क्लिप।'
यह क्लिप हटाने की भावुक प्रार्थना कवयित्री नहीं करती। दृश्यमान जगत की विडम्बनाओं को भावुक होकर पकड़ने की आकुलता तसलीमा में नहीं है। शताब्दी-दर-शताब्दी पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को दोयम दर्जे की नागरिक मानने की विडम्बना के खिलाफ तसलीमा विद्रोह कर 'नष्ट लड़की' कविता में कह उठती हैं-
ये लड़कियाँ किसी की भी बात पर कान नहीं देतीं
जो मन होता है, वही करती हैं।
किसी के भी आदेश-उपदेश की परवाह नहीं करतीं।
'कुछ पल साथ रहो' संग्रह की 'ओ मन, जागो' कविता में तसलीमा कहती हैं-
ऐसा पूरा का पूरा मर्द कभी मत बसाए रखना दिल में
पुरुष जब अंतस में दाखिल होता है
अकेले दाखिल नहीं होता
दाखिल होता है समूचा पुरुष तंत्र
इस तंत्र के मोहक मंत्र पर
अगर तुम हुईं मुग्ध
प्यार में पुलकित तो
समझ लो तुम्हारी मौत हो गई
निश्चित है तुम्हारी मौत
ओ मन, तुम उठो नाचो अपनी तरह
तुम अपनी तरह जिंदा रहो।
इस कविता के जरिए कवयित्री पुरुषशासित समाज की शर्तों पर स्त्रियों के जीवन-यापन के प्रति विद्रोह का आह्वान करती हैं। पुरुष प्रभुत्व के प्रति प्रतिरोध का स्वर होने के बावजूद पुरुष से प्रेम का निषेध वे नहीं करतीं। तसलीमा स्त्री-पुरुष बराबरी की पक्षधर हैं और उस बिना पर ही स्त्री-पुरुष प्रेम की हिमायती हैं। कवयित्री के चारों ओर जब बर्फ ही बर्फ बिछी होती है और उनकी शीतार्द्र देह जमकर प्रायः पथराई होती है, वे आधे सच और आधे सपने से कोई प्रेमी निकाल लेती हैं, अपने को प्यार की तपिश देती हैं और नि:संगता में अपने को फिर जिंदा कर लेती हैं। और निःसंगता में भी प्रेमी के होने का वे एहसास करती हैं। एक कविता में कवयित्री ने कहा है-
जब तुम मेरे साथ नहीं होते
तब तुम होते हो मेरे साथ सबसे ज्यादा
मैं चलती हूँ, लगता है, तुम भी चल रहे हो संग-संग
तुम्हें साथ लेकर जाती हूँ बाजार
खरीदती हूँ वही वही चीजें, जो तुम्हें पसंद हैं।
यह जानते हुए भी कि तुम नहीं हो साथ
जब खाना पकाती हूँ दरवाजे पर मानो टेक लगाए खड़े हो
मन ही मन करती हूँ संवाद
खाने बैठती हूँ, सोचती हूँ तुम भी बैठे हो साथ
जो कुछ भी देखती हूँ, बगल में खड़े-खड़े, तुम भी देख रहे होते हो
सुनती हूँ, तुम भी सुनते हो
बहस-मुबाहसों, गाने, गपशप में
तुम्हें भी जोड़े रखती हूँ साथ दिन-दिनभर तुम मेरे साथ होते हो
जब तक जगी रहती हूँ, तुम भी जागते हो
नींद में, सपने में भी तुम्हारा साथ
तुम नहीं होते पर हर दर्जे तुम होते हो मेरे साथ
तुम जब सचमुच साथ होते हो
तब इतना ज्यादा साथ नहीं होते
और जब साथ मिल जाता है तो कवयित्री प्रेम में डूब जाती है-
मेरे मन की उम्र अभी भी सोलह के द्वार
देह ने किया पिछले दिनों बीस पार
इस बयालीस की उम्र ने कहा
अभी तक तुम्हें पीस रहा प्रेम का जहरीला बुखार
प्रेम पर तसलीमा की कई कविताएँ हैं। निःसंगता भी उनके साथ-साथ चलती है। किसी खास अपने का न होना भी साथ-साथ चलता रहता है। निर्वासित जीवन में नि: संगता उनके लिए एक कठोर, भयावह भोगा हुआ यथार्थ है।
अपने देश से निर्वासित होकर कोई कुशल रह सकता है? सुखी रह सकता है ? बचे-खुचे सुख के लिए वे भारत में रहना चाहती हैं। कोलकाता उनका प्रिय शहर है। प्राणों से भी प्रिय। इस शहर पर उन्होंने दस कविताएँ लिखी हैं जो 'कुछ पल साथ रहो' में संकलित हैं। जब कलकत्ता से भी उनका निर्वासन हुआ तो उन्होंने लिखा-
ना, कोलकाता
आखिर तुम भी मेरे लिए नहीं हो
कोई समाधान
तुम भी नहीं हो मेरे सवालों का कोई जवाब।
तसलीमा की कविताओं में मानवतावाद, स्त्री के अंतस की बातें हैं तो प्रेम, मृत्यु, कोलकाता, निःसंगता और निर्वासन जैसे उनके प्रिय विषयों पर भी। अपने वर्षों के निर्वासन के दंश को, संघर्ष को कई रूपों में कवयित्री ने व्यक्त किया है। उसमें भोगे हुए कठोर यथार्थ के साथ भीतर का हाहाकार घुल-मिल गया है। तसलीमा की कविताओं की एक पुस्तक नजरबंदी पर केंद्रित है। इसमें लेखिका को नजरबंद किए जाने की शोकगाथा दर्ज है। 'सात महीनों की शोकगाथा' (चार महीने कोलकाता में और साढ़े तीन महीने दिल्ली में)। इस संग्रह की एक कविता में तसलीमा कहती हैं-
यदि आज जिंदा होते गांधीजी
बंदी शिविर से चाहे जैसे भी हो
मेरा उद्धार करते।
एक अन्य कविता में वे इस पर क्षोभ प्रकट करती हैं कि बड़े-बड़े अपराधी देश में खुलेआम घूमते हैं पर एक निरपराध लेखिका को नजरबंद कर, कैद कर दंडित किया जाता है। वे कहती हैं-
खासे ऐश में हैं अपराधी
भारतवर्ष में किसी में नहीं हिम्मत
कि छुए उनका बदन
जुर्म उन लोगों ने किया
सजा उन्हें नहीं, मुझे मिली
सजा मुझे मिली क्योंकि उन्होंने किया अपराध मेरे खिलाफ
उन्होंने ही मुझे देश छोड़ने की धमकी दी
देश छोड़ने को बाध्य करने के लिए
पिछले सात महीनों से चल रही है तैयारी
चूँकि मेरी हत्या का नाजायज फतवा जारी हुआ है
तोड़ा है उन्होंने देश का कानून
इसकी सजा उन्हें नहीं, मुझे मिली है
'छि:' शीर्षक कविता में तसलीमा कहती हैं-
भले मैं जेल में बंद रहूँ, क्या फर्क पड़ता है किसी को
ऐसे तो जाने कितने-कितने लोग हैं जेल में बंद
मैंने नहीं किया कोई गुनाह, इससे भी क्या फर्क पड़ता है किसी को
कितने बेकसूर भरे पड़े हैं कितनी जेलों में
जाने कितने ही बेगुनाहों को दे दी जाती है फांसी
कितनों को उम्रकैद, हर दिन
बांग्लादेश से निर्वासित होने के बाद तसलीमा भारत को अपना देश मानती हैं लेकिन जब वह भी आँख फेरने लगा तो कवयित्री के कंठ से फूटा-'देश कहने को क्या कुछ भी नहीं होना चाहिए मेरा ?' इस शीर्षक की कविता की आरम्भिक पंक्तियों में ही अपना सारा दर्द कवयित्री ने उड़ेलकर रख दिया है-
देश कहने को क्या कुछ भी नहीं होना चाहिए मेरा?
ऐसी हूँ मैं अपराधी, ऐसी हूँ, मानवता की दुश्मन
ऐसी हूँ मैं देशद्रोही कि
देश कहने को क्या कुछ भी नहीं होना चाहिए मेरा?
तो क्या देश ही छीन लेगा मेरे बचे-खुचे जीवन से मेरा स्वदेश?
कविता का सीधा सम्बन्ध भाषा से है। तसलीमा की कविताओं में बोलचाल की सीधी-साधी भाषा अपना सानी नहीं रखती। विषय और भाव के अनुसार उसमें सरलता, माधुर्य और प्रवाह रहता है। उनकी भाषा की स्वच्छता में गंगा-पद्मा की निर्मलता और उनकी धाराओं का अविरल प्रवाह है। भाषा की अभिव्यक्ति इतनी सुस्पष्ट है कि रचनाओं को समझने में किंचित मात्र भी कठिनाई नहीं होती। तसलीमा ने अपनी कविताओं को दुरूहता से एकदम बचा लिया है। बिम्ब भी वे इस तरह रचती हैं, जो विषय को त्वरित गति से मूर्त और वस्तु को दीप्त बनाता है। उनके शिल्प-टेक्नीक में भी सुबोधता है। तसलीमा की सबसे बड़ी देन यह है कि समाज और व्यक्ति की जटिलता को भी वे सरल भाषा में कह पाई हैं। सरल-सहज भाषा में ही वे अपनी गहरी सामाजिक चेतना का अहसास कराती हैं।
तसलीमा की कविताओं में विषय वैविध्य के साथ शिल्प की ऊँचाई भी है। कला की संवेदना तसलीमा की कविताओं को नया ताप देती है। तसलीमा अंततः कला के पास ही लौटना चाहती हैं-
आदमी के पास नहीं, अंततः मैं कला के पास ही लौटती हूँ
कला के आँगन में घास, दोनों पैर फैलाकर देह मसलने लायक
कला का आँचल इतना बड़ा है
लेटी-लेटी अस्त-व्यस्त सोती रहती सारा दिन।
कविता चूँकि संवेदना से उपजती है, इसीलिए वह पाठक को सहृदय व संवेदनशील बनाती है। तसलीमा की कविताओं के साथ भी हमारी संवेदना सहज जुड़ जाती है। तसलीमा की कविताएँ चूँकि मन से निकली हैं इसीलिए वे हमारे मन को छू जाती हैं। तसलीमा मन की कद्र करती हैं, इसीलिए शब्दों की भी कद्र करती हैं। शब्दों की यह कद्र उनकी गद्य कृतियों में भी देखी जासकती है। बाबरी मस्जिद के ध्वंस की प्रतिक्रिया में बांग्लादेश में हुए दंगों पर आधारित 'लज्जा' उपन्यास का वह संवाद क्या पाठक कभी भूल सकते हैं जब सुरंजन कहता है- 'मैं एक इंसान था लेकिन मुस्लिम कट्टरपंथियों ने मुझे इंसान नहीं रहने दिया, मुझे हिंदू बनाकर छोड़ा।' इस औपन्यासिक कृति में लेखिका ने एक हिंदू परिवार को सामने रखकर कट्टरपंथी मुसलमानों के हिंदू विरोधी खतरनाक रूप को उभारा है। तसलीमा बताती हैं कि बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर बहुसंख्यक मुसलमानों के क्रूर अत्याचार बाबरी मसजिद तोड़े जाने के प्रतिक्रियास्वरूप नहीं हुए, बल्कि अत्याचार का दौर तो मुक्ति युद्ध के समय से ही जारी है। वैसे उपन्यास की शुरुआत 6 दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद तोड़े जाने पर बांग्लादेश के मुसलमानों की आक्रामक प्रतिक्रिया से ही होती है। बाबरी मस्जिद तोड़नेवाले भारत के हिंदू कट्टरपंथी इसे भूल गए कि जिस तरह भारत में मुसलमान अल्पसंख्यक हैं, उसी तरह पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यक हैं। भारत में विषफोड़े का जन्म होता है तो उसका असर पड़ोसी देशों पर भी होगा। चूँकि इस पूरे उपमहाद्वीप की आत्मा एक है, उनका एक साझा इतिहास है इसलिए एक जगह की घटना का असर दूसरी जगह पड़ेगा ही, इसीलिए घृणा की जगह प्रेमपूर्ण समाज की रचना की आकांक्षा लेखिका ने व्यक्त की है।
तसलीमा के दूसरे उपन्यास 'फेरा' को 'लज्जा' की ही कड़ी के रूप में हम देख सकते हैं। 'फेरा' में वतन से बिछुड़े लोगों की पीड़ा क्रूर यथार्थ के धरातल पर अभिव्यक्त हुई है। उपन्यास की प्रमुख पात्र कल्याणी को प्राणों से भी प्रिय वतन (बांग्लादेश) छोड़ना पड़ता है क्योंकि बांग्लादेश के उस बदले माहौल में उसका रहना निरापद नहीं था। कल्याणी पहले तो कोलकाता जाने का विरोध करती है पर अंततः उसे वहाँ जाना पड़ता है। लेकिन अपनी जन्मभूमि को वह कभी नहीं भूल पाती। वह अक्सर बचपन-किशोरवय की वहाँ की स्मृतियों में उतरती रहती है। शादी के बाद भी स्मृतियों के पीछा करने के कारण ही वह तीस साल बाद जब मैमन सिंह जाती है तो कल्पना करती है कि उसकी सहेली शरीफा उसे आँखों पर बिठाएगी। पर शरीफा व अन्य परिचितों से मिलने पर उसे धक्का दर धक्का लगता जाता है। सारे परिचित दूरी बनाए रखना चाहते हैं। कल्याणी ने अपने खोए हुए तीस सालों को वापस पाने के लिए मन ही मन अपनी बाँहें फैलाईं मगर उसकी उंगलियाँ सिर्फ शून्य को ही टटोलकर वापस लौट आईं। 'लज्जा' और 'फेरा' के अलावा तसलीमा का एक और उपन्यास है 'फ्रांसीसी प्रेमी'। 'फ्रांसीसी प्रेमी' में तो पूरब और पश्चिम की दो भिन्न संस्कृतियों का अनुशीलन भी है। उसके साथ ही स्त्री विमर्श के पाश्चात्य रंग-रूप और मिजाज और स्त्री के प्रति भिन्न दृष्टिकोण से भी हम रूबरू होते हैं।
तसलीमा की कहानियों में भी स्त्री-चेतना ही केंद्रीय चिंता बनी रहती है। इसे 'चार कन्या' से लेकर 'दुखियारी लड़की' संग्रह कहानियों में लक्ष्य किया जा सकता है। जन्म से ही किस तरह लड़का-लड़की में भेद किया जाता है और यदि कोई स्त्री सिर्फ लड़कियाँ जन्मे तो उसे तलाक तक दे दिया जाता है, इसे 'जन्म का पाप' कहानी में मार्मिक ढंग से तसलीमा ने चित्रित किया। मर्द जब चाहे तलाक ले, जब चाहे निकाह करे पर स्त्री की इच्छा का कोई मूल्य नहीं। इस तथ्य को भी लेखिका उम्दा ढंग से उद्घाटित करती हैं। विवाह के बाद संतान न होने का ठीकरा भी स्त्री के मत्थे फोड़ दिया जाता है। 'मातृत्व' कहानी में तसलीमा बताती हैं कि पति नपुंसक है फिर भी पत्नी को ही बांझ माना जाता है और अंततः पीर साहब के साथ हमबिस्तर होने पर वह माँ बनती है। हालाँकि 'हमबिस्तर' को अंडा खिलाना के रूप में प्रचारित किया जाता है। जीवनभर स्त्री को कितनी-कितनी यंत्रणाएँ झेलनी पड़ती हैं, इसे 'चार कन्या' और 'दुखियारी लड़की' संग्रहों की कहानियों में मार्मिकता से कथाकार ने प्रस्तुत किया है। 'स्त्री होने की यंत्रणा' को तसलीमा ने अपने लेखों-टिप्पणियों में भी वाणी दी है। 'नष्ट लड़की, नष्ट गद्य' और 'औरत के हक में' किताबों में स्त्री-पुरुष गैर बराबरी पर तसलीमा लगातार प्रहार करती हैं। लेखिका की पीड़ा यह है कि 'नष्ट', 'कलंकित' या ' पतिता' शब्द पुरुषों के लिए नहीं, स्त्रियों के लिए प्रयोग किए जाते हैं। जैसे नारियल सड़ जाता है, वैसे ही स्त्री भी नष्ट या पतित हो जाती है। यह पुरुषतांत्रिक समाज तो इस ताक में चौकस रहता है कि जरा अवसर मिले कि लड़कियों को नष्ट या बर्बाद की संज्ञा दे दे। अपने लेख-संग्रहों में तसलीमा इस पितृसत्तात्मक समाज में स्त्रियों की दुर्दशा का यथार्थ चित्रण और बताती हैं कि कैसे स्त्री को भोग की वस्तु माना जाता है और धर्मशास्त्रों ने स्त्री पाँवों में कैसे बेड़ियाँ डाल रखी हैं। 'छोटे-छोटे दुख' किताब में तसलीमा बताती हैं कि जहाँ मर्द ही समाज नियंता है हर क्षण स्त्री को पहुँचाता है, वे छोटे-छोटे दुःख हृदय में इकट्ठा होते रहते हैं। तसलीमा की कामना है कि दुखों को इकट्ठा कर स्त्री आग बन जाए और पितृसत्ता से जंग करते हुए मुक्त जाए। लेखिका प्रश्न करती है कि आकार- आकृति किसके हाथ में है? इसके बावजूद इसके लिए स्त्री को क्यों दुःख सहना पड़ेगा? उसे आकार आकृति लिए क्यों अपमानित होना पड़ेगा? तसलीमा की कामना है कि स्त्री अब और ज्यादा अपमान नहीं सहे, वह पुरुष के शोषण, दोहन, दमन, उत्पीड़न का प्रतिरोध करे।
'स्त्री का कोई देश नहीं' तसलीमा के निबंधों, लेखों और टिप्पणियों का संग्रह है। इसमें संकलित 'पुरुष के लिए अधिकार, स्त्री के लिए दायित्व' शीर्षक लेख में तसलीमा कहती हैं, "देश के नागरिक के रूप में पुरुष को जो मर्यादा मिलती है, वह स्त्री को नहीं मिलती। स्त्री सिर्फ तीसरी दुनिया के देशों में ही नहीं ठगी जा रही है, प्रथम विश्व में भी शताब्दी-दर- शताब्दी वह मनुष्य नहीं, स्त्री ही मानी जाती रही है। स्त्रियों को लम्बे समय तक नगण्य माना गया, नागरिक नहीं माना गया। नागरिक शब्द की उत्पत्ति नगर से हुई है। काफी पहले एक समय ऐसा था कि नगर ही देश होते थे। कभी भूमध्य सागर के किनारे डेढ़ हजार नगर थे। आज से ढाई हजार साल पहले जिस ग्रीस में लोकतंत्र की नींव पड़ी, वहाँ भी स्त्री को पुरुष के समान नागरिक अधिकार नहीं मिले थे। नागरिक अधिकार को लेकर जिस रोमन साम्राज्य में बहुत विमर्श हुआ, वहाँ भी स्त्री को दोयम दर्जे का माना जाता था। फ्रांस में जहां जनक्रांति जैसी विस्मयकारी घटना घटी, वहां मनुष्य के अधिकार का कानून बना। अमेरिका जैसे देश में भी परिवर्तन लहर उठी। स्वाधीनता और लोकतंत्र के लिए लड़ाई हुई। समान अधिकार का संविधान रचा गया पर साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद और पुरुष तंत्र फिर भी कायम रहा। स्त्री के अधिकार की यथोचित चिंता नहीं की गई। पुरुष के अधिकार को ही मनुष्य का अधिकार मान लिया गया। किसी जनक्रांति, किसी संविधान या किसी कानून ने स्त्री के पक्ष में दो शब्द भी नहीं कहा। क्रांतिकारी बुद्धिजीवियों तक ने स्त्री के पक्ष में जिरह नहीं की। पुरुष के अधिकार की व्यवस्था हर कालखंड में रही- अभिव्यक्ति का अधिकार, वोट देने और चुनाव लड़ने का अधिकार, सोचने और स्वाधीनता पाने का अधिकार पुरुष को ही मिला। स्त्री को अधिकार की जगह दायित्व मिला। घर-गृहस्थी चलाने का दायित्व, पुरुष को सुख देने, संतान उत्पादन करने और उसका लालन-पालन करने का दायित्व। शताब्दी-दर-शताब्दी यही दायित्व-व्यवस्था जारी रही और आज भी है।" एक लेख का शीर्षक है 'घर का काम सिर्फ लड़कियों का काम क्यों माना जाता है?' इसमें तसलीमा कहती हैं, "मुझे लगता है कि देश, समाज और परिवार हर जगह सभी बड़े फैसले पुरुष ही करते हैं। यही मानो नियम है। पुरुषों की इच्छा होने पर वे स्त्रियों को सिंगापुर दिखाते हैं, दिल्ली दिखाते हैं, मुंबई दिखाते हैं और इच्छा होने पर नरक दिखाते हैं, अत्याचार दिखाते हैं, अनाचार दिखाते हैं, असभ्यता दिखाते हैं। इच्छा करने पर दिखा सकते हैं और दिखाते भी हैं। स्त्री का काम सिर्फ देखना है। आदेश पालन करना है। पुरुष जो भी आदेश देगा, उसका पालन करने को स्त्री बाध्य है। स्त्री का काम है- आदेश लेना, निर्देश लेना और मुँह बंद रखना। स्त्री का काम प्रतिवाद नहीं करना, परेशान नहीं होना, प्रश्न नहीं करना है। उसका काम सिर्फ सिर नत कर हर बात मानते जाना है। स्त्री का सबसे बड़ा काम अपने को सुखी मान कर चलना है।
तसलीमा का कहना है कि स्त्री और पुरुष दोनों को मिलकर घर का काम करना चाहिए। यदि घर के काम पति-पत्नी दोनों शेयर नहीं करेंगे, तो दाम्पत्य जीवन भी शेयर नहीं किया जा सकता। पत्नी झाडू लगा रही है तो पति पोंछा लगाए। पत्नी बर्तन माँज रही है, तो पति कपड़े साफ करे। घर के इन कामों में कोई भी काम पुरुष नहीं करना चाहता। स्त्री कई बार स्वेच्छा से और कई बार बाध्य होकर घर का काम करती है-यह सोचकर कि यदि इसी से पुरुष खुश रहेंगे और शान्ति बनी रहेगी, तो यही सही। एक लेख में तसलीमा कहती हैं कि सुनील गंगोपाध्याय के जन्मदिन पर कइयों ने गर्वपूर्वक कहा कि सुनील के जीवन में कई स्त्रियाँ आईं। तसलीमा पूछती हैं कि क्या किसी लेखिका के लिए इस तरह कोई बोल सकता है कि उसके जीवन में अनेक पुरुष आए और पुरुषों के साथ उसने बहुत प्रेम किया और पुरुषों को लेकर उसने बहुत सारी कविताएँ लिखीं? अनेक पुरुषों के साथ अपने सम्बन्धों को लेकर क्या कोई लेखिका गर्व कर सकती है, जैसा पुरुषों के सन्दर्भ में, सुनील के सन्दर्भ में गर्व किया जाता है? तसलीमा दरअसल चाहती हैं कि समाज और जीवन को गढ़ने के लिए स्त्री और पुरुष को बराबर का अधिकार मिले। इसी समानता की कामना में वे दो टूक अंदाज में पुरुषों के निरंकुश अधिकारों को चुनौती देती हैं। बचपन से लेकर अब तक के अपने निष्ठुर तजुर्बां के आईने में ही वे स्त्री-पुरुष गैर-बराबरी पर सवाल खड़े करती हैं।
तसलीमा ने स्त्री होते हुए भी अपने को अबला नहीं माना, बल्कि उसे अपनी ताकत बनाया और निजी जीवन की स्मृतियों को साहस के साथ दर्ज करते हुए संक्रमणकालीन समाज के छद्म और ढकोसले का पर्दाफाश किया। अपनी आत्मकथा में वे बताती हैं कि किस तरह समाज में स्त्री और पुरुष के लिए अलग-अलग नियम और मानक हैं। तसलीमा की आत्मकथा के सात खंड प्रकाशित हो चुके हैं। पहले खंड 'मेरे बचपन के दिन' में तसलीमा ने जिस साहस के साथ अपनी बालिकावस्था के संस्मरण दर्ज किए हैं, वह इस उपमहादेश के समकालीन लेखकों में प्रायः नहीं मिलता। बचपन में जो 'लज्जाजनक अनुभव' होते हैं, उन्हें लिखने की बात तो दूर, उल्लेख तक करने या याद करने से भी हम घबराते हैं। माँ का अपना भाई या पिता का अपना भाई ही यदि यौन उत्पीड़न करे तो उसे लिखने का साहस कितने लोग करेंगे? सात वर्ष की उम्र में स्वजन के हाथों के 'अंधकार अनुभव' को पढ़ते हुए दक्षिण एशियाई देशों में स्वजनों द्वारा बाल यौन उत्पीड़न की पूरी तस्वीर ही उभर आती है। 'मेरे बचपन के दिन' में लेखिका ने बचपन के परिवेश, माँ-पिता, मामा, काका, भाई, दाइयों-सबको उनके मूल चरित्र के साथ चित्रित किया है। बांग्लादेश में जब मुक्ति संग्राम शीर्ष पर था, तब तसलीमा नौ वर्ष की थीं। तेज लड़ाई छिड़ जाने के मैमनसिंह का आवास छोड़कर इस गाँव से उस गाँव में आश्रय लेना पड़ रहा था। बेगुनबाड़ी में हासपुकुर और उसके बाद दापुनिया में दापुनिया में आधी रात हाथ में टार्च लिए बंदूकधारी पाकिस्तानी सिपाहियों का एक दल आया। नौ साल की उम्र के उस पीड़क अनुभव को भी तसलीमा ने दर्ज किया है।
'मेरे बचपन के दिन' में तसलीमा ने जन्म से पंद्रह वर्ष तक की उम्र की जीवनी लिखी है तो 'उत्ताल हवा' में 16 से 26 वर्ष की उम्र तक की कथा समेटी गई है। इसमें तसलीमा और बड़ी हो गई हैं। चीजों को परखने की नजर और चौकस और तीखी हो गई है, अनुभव की परिधि और विस्तृत हो गई है। एक दकियानूसी परिवार में पल-बढ़कर बड़ी होती लड़की प्राचीनता के बंधन तोड़ते हुए तमाम मुश्किलें भेदती हुई असाधारण कश्मकश झेलती है। प्यार, सुख-दुख और सम्बन्धों के उठने-गिरने में उसका मन झूलता है। आत्मकथा के तीसरे खंड 'द्विखंडित' में तसलीमा ने बताया है कि जब वे मुश्किल में पड़ी थीं तो सहानुभूति जताने की आड़ में किन-किन लेखकों ने उन्हें पाना चाहा या प्राप्त किया। लेखकों की यौन लोलुपता को उन्होंने सार्वजनिक किया तो भूचाल आ गया था। कहा गया कि चूँकि सम्बन्ध परस्पर स्वीकृति और सहयोग से बने थे, इसलिए परस्पर सहमति से ही सम्बन्धों का खुलासा किया जाना चाहिए था। प्रश्न है, तसलीमा ने समाज के पाखंड को उजागर किया है, इसके लिए उनकी प्रशंसा के बजाय आलोचना किए जाने पर कट्टरपंथियों को मदद नहीं पहुँचेगी? तसलीमा या कोई लेखक यदि खुलकर अपने विचार प्रकट करता है, इसमें क्या बुराई है? किसी लेखक की कलम क्यों थामी जानी चाहिए? यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि जब तसलीमा ने अपने बारे में कुछ नहीं छिपाया है, जब खुद के बारे में वे निर्मम हैं तो दूसरों को क्यों बख्शें? दूसरों की सेक्स-कुंठा पर क्यों पर्दा रहने दें? तसलीमा ने पर्दा हटाया तो बांग्लादेश और कोलकाता के लेखकों ने कुल 21 करोड़ रुपये का मामला दायर किया। इस तरह साहित्य के इतिहास में पहली बार किसी लेखक की कलम छीनने के लिए लेखकों ने कट्टरपंथियों से हाथ मिलाया। आत्मकथा के चौथे खंड ' अंधेरे वे दिन' में तसलीमा ने उन अंधेरे दिनों की कथा कही है जब उन्हें दो महीने घुप्प अंधियारे में छिपकर, अपने को गोपन कर रहना पड़ा, वह भी अपनी ही मातृभूमि में अपने ही देश में आत्मगोपन कर रहना और वह भी किसी से सम्पर्क नहीं होने देना- इस यंत्रणा को मार्मिक ढंग से लेखिका ने व्यक्त किया है। एक बानगी देखें,''मैंने 'झ' से कहा, मैं अपने वकील को कम से कम एक बार फोन करना चाहती हूँ। मैं अपनी जमानत के बारे में जानना चाहती हूँ। 'झ' ने जवाब दिया, 'क' और 'ड' कह गई हैं कि तुम्हें कहीं फोन न करने दिया जाए।"
तसलीमा ने अपने देश में अपनी जिन्दगी के 32 साल गुजारे हैं। उन वर्षों में उन्हें ढेरों दुःख मिले पर उन्हें कभी नहीं लगा कि समय ठहर गया है। लेकिन देश से निर्वासित होने के बाद उनके आगे-पीछे अतीत के अलावा उनकी और कोई जिंदगी नहीं है। वे आज भी अतीत में जीती हैं। आत्मकथा के पाँचवें खंड 'आमी भालो नेई तुम भालो थेको प्रिय देश' (मैं कुशल नहीं हूँ, तुम सकुशल रहना प्रिय देश) हिंदी में 'मुझे घर ले चलो' शीर्षक से आया। यह कथा तब से शुरू होती है जब वे बैंकाक हवाई अड्डा पहुँचती हैं। सिर का आँचल हटा लेती हैं। सिर का आँचल हटाते ही स्वीडन के विदेश मंत्रालय से आए लार्ड एंडर्सन उनकी तरफ हाथ बढ़ाते हैं, सम्मान का वह सिलसिला बर्लिन, नार्वे, पुर्तगाल, पेरिस, ज्यूरिख, न्यूयार्क तक चलता है। चारों तरफ हजारों लोग। यूरोप में किताबें छप रही हैं। तसलीमा की जय जयकार पर तसलीमा निपट अकेली। और एकांत में वही अपना देश जहाँ चाहकर भी वह लौट नहीं सकतीं। देश के करीब नहीं पहुँच पातीं।
आत्मकथा के हर खंड में देखें तो वहाँ आरम्भ से आखिर तक काव्य सुषमा से मंडित गद्य है। और उस काव्यमय गद्य में पाठकों को मार्मिक व विषादभरी अनुभूति होती है। तसलीमा की आपबीती के अनेक त्रासद प्रसंग हैं। मुझे नहीं पता, तसलीमा की आपबीती में जिन्हें सनसनी नजर आती है, उन्हें साफगोई, तार्किकता और विवेचना की स्पष्टता क्यों नहीं नजर आती और तसलीमा की आपबीती क्या इस उपमहादेश की हर स्त्री की आपबीती नहीं है? तसलीमा ने अपनी आत्मकथा में (और निबंधों में भी) अपने यौन प्रसंगों का बेबाक वर्णन अवश्य किया है पर उसी के साथ बांग्लादेश मुक्ति के संग्राम से लेकर इस्लामिक देश, राष्ट्रीयता तथा भाषा के ज्वलंत मुद्दों को भी साहस के साथ उठाया है। तसलीमा इसी साहस के लिए जानी जाती हैं। वे ऐसी साहसी लेखिका हैं जिसकी सर्वप्रमुख माँग स्वाधीनता है। वे स्त्री की हर तरह की स्वाधीनता की पैरोकार हैं। 'नारीर कोनो देश नेई' में उन्होंने लिखा है, "यौन स्वाधीनता के बिना स्त्री कभी भी सच्चे अर्थों में स्वाधीनता अर्जित नहीं कर सकती। जिस नारी की देह उसके अपने अधिकार के बाहर चली जाती है, वह नारी किसी भी अर्थ में स्वाधीन नहीं कही जा सकती। शिक्षित और स्वनिर्भर होने के बावजूद इस नारी विरोधी समाज में स्त्रियाँ यौन गुलामी से मुक्ति नहीं पा सकतीं। इस मुक्ति का मतलब यह है कि पुरुष की इच्छा के रहते ही वह हाँ न कहे, बल्कि जब उसकी स्वयं भी इच्छा हो, तब हाँ कहे।"
तसलीमा का युद्ध एक अकेली स्त्री का युद्ध नहीं है, बल्कि समूची स्त्री जाति का युद्ध है। संसार में सबसे अनमोल वस्तु मनुष्य का जीवन है और इस जीवन को भी दाँव पर लगाकर जब तसलीमा यह युद्ध करती हैं तो कहना न होगा कि तब उनका युद्ध और ज्यादा तात्पर्यपूर्ण हो जाता है। तसलीमा की रचनाओं में सर्वत्र स्त्री-पुरुष विषमता के प्रति प्रतिरोध है। कदाचित इसीलिए वे प्रतिरोध की नायिका हैं। अनवरत प्रतिरोध की ताकत ने ही उन्हें बेबाकी दी है। उनकी यह बेबाकी हर कृति में देखी सकती है।